top of page

रीजाँगला


मैं अकेला खड़ा था

एक बड़े से पत्थर के सहारे


शून्य में ताक रहा था

सामने था मीलों फैला

कँकरीला मैदान

पथरीला विस्तार उस पार


चट्टानी पहाडों की श्रृंखलाएँ

साँय साँय बहती हवाएँ


कुछ भी तो नहीं था

बंजर धरती बेजान सी धरती

आसपास कुछ न था।


एक पत्थर था वहीं बैठ गया

सामने स्मारक था

नाम पढ़ने लगा


चुशूल के वीर एक सौ तेरह थे

मेरे सब तरफ़ उनके मोर्चे थे

आखिरी साँस तक लड़े थे


गिरते रहे पर लड़ते रहे

मरते रहे पर डटे रहे

आखिरी साँस तक लड़े थे

तेरह कुमाऊँ के शहीद थे

1962 के शहीद थे।


मैं एक एक मोर्चे तक गया

कुछ नहीं था, यादें थीं

मन खाली था, सोच रहा था

कितनी वतन परस्ती से लड़े थे

कफ़न बाँध के लड़े थे

मोर्चों के सामने

सैंकड़ों चीनी मृत पड़े थे

बंजर ही सही पर, अपनी थी

वीरान सही पर, अपनी थी

वचनबद्ध सेनानी थे

सरहदों की रक्षा करनी थी ।।


73 views0 comments

Recent Posts

See All
Post: Blog2 Post
bottom of page