कोहरा छट रहा था, बर्फ़बारी रुक चुकी थी
मैं बंकर से बाहर आ गया
पीछे एक टीला था वहाँ चढ़ गया
चारों तरफ़ बर्फ़ की चादर थी
सूरज की किरणें, छन छन कर बर्फ़ पर गिर रही थीं
आसपास की श्रृंखलाएँ, उजली श्वेत थीं
प्रकृति धुल सी गयी थी
मन को छूते दृश्य नीला आसमान
पास ही नुबरा बह रही थी
लगभग जम सी गई थी
कहीं कहीं अब भी बह रही थी
एकाकीपन था, अलौकिक शाँति थी
कुदरत की असीम सुन्दरता, बेपनाह बिखरी थी
पहाडों के उस तरफ़ सरहद थी, अक्सर गोलाबारी रहती
कभी कभी कोई गोला, हमारी सरहदों में आ गिरता
कैसी विडम्बना थी, एक चक्रव्यूह था
धरती के पटल की इंसानी लकीरें, खिचती रहीं मिटती रहीं
उसे ही तबाह करती रहीं, हर सदी यही बयाँ करती रही
मैं पास ही चट्टान पर बैठ गया, सोचता रहा ऐसा क्यों हुआ
हर सदी में हर बार, इंसान ने इंसानियत को
आखिर क्यों तबाह किया,
विडंबना है एक चक्रव्यूह है |
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